एक और कविता

रस्सी से बंधी हुयी
बोझ में दबी हुयी
बुझी आँखों से देखती
दुकानें सजी हुयी

झुलसती गर्मी में
पानी को तरसती
जनवरी के जाड़े में
नंगे बदन ठिठुरती

दिन भर भागती
सड़कों की ख़ाक छानती
सपनों की तलाश में
रात भर जागती

एक और कविता भी है
जो हमें दिखाई नहीं देती
या दिखाई दे, तो भी
मूंह फेर लेते हैं हम

जिंदा रहने की दौड़ में
थोडा जीत जाते हैं हम
2 Comments

2 Responses to "एक और कविता"