सूरज का सातवाँ घोड़ा: प्रयोगात्मक उपन्यास, नीति-कथाएँ या जीवन को आइना दिखाता कहानी संग्रह

“…जानते हो ये सपने सूरज के सातवें घोड़े के भेजे हुए हैं!”

कल दोपहर दिल्ली विश्वविद्यालय कैम्पस के अपने सबसे पसंदीदा कोने में बैठे हुए, मैंने धर्मवीर भारती का उपन्यास ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ शुरू किया और ख़त्म भी. भारतीय ज्ञानपीठ की लोकोदय ग्रंथमाला में छपी इस कृति के पन्ने ज़्यादा नहीं हैं, अगर आप ‘अज्ञेय’ द्वारा लिखी भूमिका और भारती द्वारा लिखा ‘निवेदन’ मिलाकर पढ़ें तो 80 पन्ने ही हैं. और मैं चाहूँगा आप ये दोनों ज़रूर पढ़ें, उपन्यास शुरू करने के पहले और एक बार समाप्त करने के बाद भी. ये वो ‘बुक-एंड्स’ हैं जिनको बीच में रखकर आप इस कृति को, इस उपन्यास को शायद और अच्छे से समझ पाएंगे.

जैसा अज्ञेय भूमिका में कहते हैं, यह उपन्यास किस्सागोई की उस शैली में गठित है जो किसी समय उत्तर भारत में काफ़ी प्रचलित थी. रोज़ शाम महफ़िलें लगती थीं और अलिफलैला आदि किस्से शुरू होते थे तो ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेते थे! हिंदी साहित्य में ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ इसलिए अनूठा माना जाता है क्यूंकि ये भी इसी शैली में लिखा गया है. एक कहानी है जिसमें से दूसरी निकलती है और फिर तीसरी, चौथी, और सातवीं तक पहुँचते-पहुँचते आप समझ जाते हैं की माणिक मुल्ला कोई आम किस्सागो नहीं, उन्होंने कहानियों के फेर में पूरा उपन्यास सुना डाला और आपको पता भी नहीं चला! अज्ञेय की भूमिका की भाषा पर मत जाइयेगा (वे ठहरे अज्ञेय, अपनी ही भाषा में लिखेंगे!), माणिक मुल्ला की भाषा आम-बोलचाल की भाषा है. वे ही इस उपन्यास के सूत्रधार भी हैं और वे ही मुख्य पात्र भी. कहानियाँ कई किरदारों कि हैं, पर आपस में जुड़ी हुयी और ऐसी कि क़िताब ख़त्म करने के बाद भी आप उनके बारे में ही सोचते रहेंगे.

सन 1952 में पहली बार छपा ये ‘प्रयोगात्मक उपन्यास’ आज भी उतना ही प्रभावी है जितना तब था. इसके पात्र आज भी उतने ही सजीव, उनकी कहानियाँ आज भी उतनी ही मार्मिक…हाँ 2012 में पढ़ने वालों को कुछ चीज़ें थोड़ी dated या पुरानी लग सकती हैं पर उनमें भी भावनाएं नहीं बदली हैं. आज भी किसी तन्ना पर पढ़ाई बीच में छोड़ कर नौकरी का दबाव पड़ता है, सत्ती का शोषण आज भी होता है, जमुना आज भी अपने वीरान ब्याहता जीवन में आस्था के बरगद बोती है.

गठन की शैली, परिस्थितियों की मार्मिकता और चरित्रों की सजीवता के अलावा एक और बात भी है जो इस उपन्यास को अनूठा बनाती है. वो है भारती की हास्य शैली. जीवन के कड़वे से कड़वे सच को भी वो इस प्रकार हंस कर सुनाते हैं की वो और भी गहरायी तक चुभता है. Chaucer के prologue की तरह, ये सिर्फ व्यंग्य नहीं है, न ही किसी cynic का ज़िन्दगी के प्रति नजरिया है, ये उस व्यक्ति की दुनिया बखान करने की शैली है जिसने जीवन में काफ़ी कुछ देखा है और अब वो उस अवस्था में है जहाँ सुख और दुःख एक ही सिक्के के दो पहलु लगते हैं, वो सिर्फ चीज़ें ध्यान से देखता और बताता है, उनके अच्छा या बुरा होने का फ़ैसला वो आप पर छोड़ देता है.

पर क्या ये ‘प्रयोगात्मक उपन्यास’ सिर्फ साझी जुड़ी कहानियों का संग्रह है या एक नीति कथा भी है? माणिक मुल्ला की सुनें तो उनके हिसाब से हर कथा-कहानी को निश्कर्श्वादी होना चाहिए. और यह निष्कर्ष समाज के लिए कल्याणकारी भी होना चाहिए. उपन्यास के अंत की तरफ़ उनका बयान भी कुछ ऐसा ही कहता महसूस पड़ता है… “अंत में मैंने फिर पुछा की सूरज की सात घोड़ों से उनका क्या तात्पर्य था और सपने सूरज के सातवें घोड़े से कैसे सम्बद्ध हैं तो वे बड़ी गंभीरता से बोले कि, देखो ये कहानियाँ वास्तव में प्रेम नहीं वरन उस ज़िन्दगी का चित्रण करती हैं जिसे आज का निम्न-मध्यवर्ग जी रहा है. उसमें प्रेम से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गया है आज का आर्थिक संघर्ष, नैतिक पतन, इसीलिए इतना अनाचार, निराशा, कटुता और अँधेरा मध्यवर्ग पर छा गया है. पर कोई-न-कोई चीज़ ऐसी है जिसने हमेशा अँधेरा चीरकर आगे बढ़ने, समाज-व्यवस्था को बदलने और मानवता के सहज मूल्यों को पुनः स्थापित करने कि ताकत और प्रेरणा दी है. चाहे उसे आत्मा कह लो चाहे कुछ और. और विश्वास, साहस, सत्य के प्रति निष्ठा उस प्रकाश्वाही आत्मा को उसी तरह आगे ले चलते हैं जैसे सात घोड़े सूर्य को आगे बढ़ा ले चलते हैं.”

ख़ैर ये हुयी निष्कर्ष कि बात, अगर आप न भी निकालना चाहें निकल ही आते हैं. जब आप इस उपन्यास को पढ़ें तो अपने मन कि बात मुझसे ज़रूर कीजियेगा.

तब तक के लिए, विदा.

-आदी

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